पुराण: इतिहास या भक्ति रूपक? - Bablu Sharma

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पुराण: इतिहास या भक्ति रूपक?

पुराण: इतिहास या भक्ति रूपक?
कृष्ण ने भगवद्गीता में एक स्थान पर कहा है, "अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।"
 दुर्भाग्य से हिंदू समाज पिछले एक हजार साल से इस बीमारी से ग्रसित रहा है और घो
र विभ्रम की स्थिति में है।
एक ओर तो वह अपनी आस्था की छाया में पुराणों के अतिरेकपूर्ण विवरणों की ज्यों की त्यों संपुष्टि चाहता है तो दूसरी ओर विज्ञान के आलोक में वह उन्हें ऐतिहासिक व्यक्तित्व सिद्ध कर उनके महत्कृत्यों का अनुगायन करना चाहता है।
हिंदुओं की इस दुविधा का लाभ सदैव से एक पाखंडी वर्ग उठाता चला आया है जिसने भोले हिंदुओं को हमेशा बरगलाकर उनका विनाश करवाया है। जैसे कि शरीर और बुध्दि दोंनों पर चढ़ी चर्बी से उन्मत्त एक तोंदियल नकलची बंदर कर रहा है जो लोकप्रिय लेखकों की शैली की नकल कर फोटोनों से दुर्गा उत्पत्ति करवा देता है। महाराज भोज के काल में ऐसे नकलची बंदरो को फांसी पर लटका दिया जाता था पर वर्तमान में ऐसे गाल बजाऊ स्वघोषित विद्वान स्वयं को 'बहुश्रुत' घोषित कर देते हैं और कुछ दिन बाद बेरोजगार रहने के बाद व्यास गद्दी पर बैठकर भोले हिंदुओं से पैसे ऐंठते हैं।
सोमनाथ में भी तो यही हुआ था। आम श्रद्धालु हिंदू महमूद गजनवी के आक्रमण की खबर से व्याकुल था और अपने आराध्य व श्रद्धा के केंद्र पर अपनी जान न्योछावर करना चाहता था लेकिन धर्मद्रोही रुद्रभद्र जैसे कुछ तोंदियल पाखंडियों ने यह कहकर जनता को भ्रमित आश्वस्त कर दिया कि सोमनाथ स्वयं तृतीय नेत्र खोलकर म्लेच्छ को भस्मीभूत कर देंगे। इस अवैज्ञानिक दुष्प्रचार का मूल्य वैज्ञानिक व तार्किक दृष्टि से संपन्न गंग सर्वज्ञ जैसे पूज्यपाद ब्राह्मणों व उन क्षत्रिय व कोली योद्धाओं को अपने रक्त से चुकाना पड़ा जो सोमनाथ में तो श्रद्धा तो रखते थे परंतु उस अवैज्ञानिक व्याख्या में कोई विश्वास नहीं था।
आज भी यही हो रहा है। व्यासगद्दी पर बैठे हुये ये धर्माचार्य दो चार संस्कृत के श्लोक रटकर पौराणिक महापुरुषों की चमत्कारिक व्याख्या कर जनता की अंधश्रद्धा को और बढ़ाकर उन महापुरुषों के आदर्शों से विमुख कर देते हैं।
मैं उदाहरण लेता हूँ, महारुद्र शिव का।
हिंदू धर्म के सर्वाधिक मान्य देव। एक आम श्रद्धालु हिंदू के लिये वे कामारि हैं, विषपायी हैं, भोले हैं, न्यायप्रिय हैं अतः सुर असुर दोंनों वर्गों की श्रद्धा का केंद्र हैं।
इन सूचनाओं के स्रोत क्या हैं?
पुराण और सिर्फ पुराण क्योंकि वेदों में रुद्रों का वर्णन कुछ ऋचाओं तक सीमित है जिसमें उन्हें मरुतों का पिता व व्याधियों के अधिष्ठाता देव के रूप में वर्णित किया गया है।
अब आते हैं पौराणिक गाथाओं में वर्णित रुद्र जो शिव से अभिन्न हैं और जिनके असाधारण कृत्यों व उपलब्धियों के विवरण को दो रूपों में देखा जा सकता है।
प्रथम, अपार्थिव व दैवीय शक्ति जो किसी अन्य लोक में दिव्य कैलाश में स्थित हैं और समय समय पर पृथ्वी पर आकर तर्क व सिद्धांतों से परे चमत्कार करके वापस अपने लोक में समाधि में चले जाते हैं।
द्वितीय, जो एक काल्पनिक दैवीय शक्ति नहीं बल्कि एक महान ऐतिहासिक चरित्र हैं जिनकी राजनैतिक व सैन्य उपस्थिति सतयुग से द्वापर युग त्यक निरंतर देखी गई और जनसामान्य ने उन्हें ईश्वरीय रूप में पूजा।
अब आपके ऊपर है कि आप उन्हें क्या मानना चाहते हैं?
अगर आप मानते हैं कि पुराणों में वर्णित कथा सत्य है कि उन्होंने हलाहल विष पीकर उसे अपने कंठ में धारण किया था व काम को जलाकर भस्म कर दिया था तो पुराणों की इस कथा पर बगलें क्यों झांकते हैं कि शिव मोहिनी को देखकर काममोहित हो गये और उनके स्खलित वीर्य को पवनदेव द्वारा माता अंजना के गर्भ में स्थापित कर दिया था जिससे हनुमान का जन्म हुआ और इसी कारण उन्हें 'शंकर सुवन' कहा जाता है।
यहाँ पर आपकी श्रद्धा की असली परीक्षा होती है। निन्यानवे दशमलव निन्यानवे प्रतिशत हिंदू लड़खड़ा जाते हैं और तुरंत आपके द्वारा ही घोषित अपनी आस्था के चिरशत्रु विज्ञान की गोद में बैठ जाते हैं और हास्यास्पद बातें करने लगते हैं--
"जी, यह तो सेरोगेसी वाला मामला दिखता है।"
" जी, यह तो एक रूपक है।"
"जी, अंग्रेजों की मिलावट है जी।"
---और पेश है एक ताजातरीन तर्क जो मूलतः गोपीनाथ कविराज का है जिसे कुछ नकलचियों द्वारा अपने नाम से प्रस्तुत किया जा रहा है-
"ये तो 'अक्षर पुरुष' व 'उत्तम पुरुष' का मिलन है।"
और सबसे सरल तर्क-
"तुम वामपंथी, क्रिप्टोक्रिश्चियन हो।"
कड़वे व कठोर शब्दों के लिये तो क्षमा चाहता हूँ परंतु वास्तव में हम लोग प्रथम श्रेणी के पाखंडी हैं जिनके दिमाग में सिर्फ "यौन कुंठाएं" भरी हैं और प्रत्येक घटना और भाव का परीक्षण सिर्फ और सिर्फ "यौन शुचिता" के आधार पर करते हैं।
हमारी श्रद्धा इतनी कच्ची है कि पूज्य चरित्रों के जन्मों में भी अपनी यौन शुचिता ढूंढती है।
हमारा विश्वास इतना कमजोर है कि तुम अपने आराध्यों की महानता उनके महान कार्यों से नहीं बल्कि उनके यौन प्रसंगों से निर्धारित करते हो।
हमारी आस्था इतनी भुरभुरी है कि एक पौराणिक तथ्य के उद्घाटन से ढह जाती है।
अरे, क्या फर्क पड़ता है कि रुद्र, दुर्गा, हनुमान और गणेश किस विधि से उत्पन्न हुये? फर्क तो इस बात से पड़ता है कि उनके महान कामों का समाज को क्या लाभ मिला।
मेरे लिये रुद्र का 'मोहिनी प्रसंग' उनके प्रति मेरी निष्ठा और बढ़ा देता है कि मेरे शिव भी मेरे जैसे ही हैं । उनमें भी कामभाव उत्पन्न हो सकता है तो मेरे जैसे सामान्य मनुष्य में भी यह क्षम्य है परंतु मेरे शिव ने काम का दहन भी किया जो मुझे करना बाकी है, मेरे शिव ने संसार के कल्याण के लिये हलाहल को पी लिया, मुझे अभी अपमान के विष को भी गले में धारण करना नहीं आया है, इसलिये वे मेरे सदैव पूजनीय और आदरणीय रहेंगे भले ही मैं रुद्राक्ष की माला धारणकर फेसबूक पर अपना चित्र डालकर शिवभक्त होने का आडंबरपूर्ण प्रदर्शन ना करूं।
आपके लिये शिव एक देवता हैं जिनकी पूजा आप या तो अपने पापों से डरकर करते हैं या किसी लोभ में और इसीलिये जब कोई भी विपरीत तथ्य आपके यौन मानदंडों के विपरीत उनकी दैवीय छवि में दरार डालता प्रतीत होता है तो आप डर जाते हैं और हिंसक हो उठते हैं।
जहां तक मेरा प्रश्न है मेरे लिए महारुद्र शिव एक ऐतिहासिक चरित्र, हिंदुत्व की सर्वसमावेशी प्रकृति के जनक, भाषा, व्याकरण, संगीत, युद्ध विज्ञान, अभियांत्रिकी के जनक हैं पर सबसे अधिक आकर्षक है उनके सहज मानवीय द्वैत भाव-
एक ओर वे पत्नी वियोग में संसारभर की आंखों में आंसू ला देने वाला रुदन करते हैं और काम को जलाकर भस्म कर देते हैं तो दूसरी ओर पुनर्विवाह कर वर्षों तक काम में ही निमग्न हो कामशास्त्र का प्रणयन करते हैं।
एक ओर वे उन्मत्त प्रेमी व बालक के समान स्वच्छ व सरल ह्रदय हैं जो मोहिनी प्रसंग में अपनी कामजनित कमजोरी को स्वीकार करते हैं तो दूसरी ओर योगशास्त्र के प्रणेता आदियोगी भी हैं।
मैं उनके इस द्वैत रूप पर ही तो मोहित हूँ और उनका यह सहज मानवीय रूप ही मुझे उनकी दिव्यता की प्रतीति कराता है अधकचरे शोहदों की मनगढंत अतार्किक व्याख्याएं नहीं।
--मैं प्रत्येक हिंदू में आमृत्यु शिव जैसा व्यायाम व योग से संपुष्ट कठोर मांसल शरीर देखना चाहता हूँ, तोंदें नहीं।
--मैं प्रत्येक हिंदू में शिव जैसा प्रेमी देखना चाहता हूँ, गालीबाज व अश्लील मस्तिष्क वाले छिछोरे शोहदे नहीं।
--मैं प्रत्येक हिंदू में शिव जैसी पवित्रता देखना चाहता हूँ बलात्कारों में स्त्री का आनंद ढूंढने वाले मथुरा के उस फ़ेसबुकिया छिछोरे जैसे नक़लची बंदर नहीं।
--मैं प्रत्येक हिंदू में रुद्र जैसा योद्धा देखना चाहता हूँ चार कदम दौड़ने पर हांफकर पसरने वाले भैंसे नहीं।
सवाल यह है कि आप क्या चाहते हैं?
सिर्फ उन्हें पूजना या उनके आदर्शों को धारण करना ?

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