!!•!! भारतीय संस्कृति के मूल तत्व !!•!!
【"भारतस्य प्रतिष्ठे द्वे संस्कृतं संस्कृतिस्तथा" 】
इस वाक्य से यह
विदित होता है कि हमारे भारत की प्रतिष्ठा संस्कृत और संस्कृति इन्ही दोनों में
निहित है और संस्कृत-संस्कृति का ही मूल है। अतएव पद्मश्री आचार्य कपिलदेव
द्विवेदी ने कहा है -
【संस्कृतं संस्कृतेर्मूलं ज्ञानविज्ञानवारिधिः।
वेदतत्वार्थसंजुष्टं लोकाऽऽलोककरं शिवम्॥】
वेदतत्वार्थसंजुष्टं लोकाऽऽलोककरं शिवम्॥】
संस्कृति शब्द के
संकेतग्रहणार्थ (अर्थ प्राप्त्यर्थ)
【 "शक्तिग्रहं व्याकरणोपमानं कोशाप्तवाक्याद्व्यवहारतश्च" 】
इस सूक्ति के अनुसार
कोशों पर दृष्टिपात करने पर संस्कृति शब्द की अनुपलब्धता पाई जाती है तदनन्तर
कोशेतर शक्तिग्राहक तत्वों से संस्कृति शब्द का शक्तिग्रहण करने पर 【"सम्यक् कृतिः संस्कृतिः"】 अथवा【 "संस्कृतिः संस्करणम्"】 इत्यादि
व्युत्पत्ति प्राप्त होती है।
सम् उपसर्ग पूर्वक
(डु)कृ(ञ्) करणे धातु से पाणिनि के 【"स्त्रियां क्तिन्" 】सूत्र से 【क्तिन् प्रत्यय】 होकर संस्कृति शब्द की उत्पत्ति होती
है तथा भारत में रहने वाली संस्कृति भारतीय संस्कृति कही जाती है।
यही संस्कृति शब्द
आगे अर्थानन्तर में संस्कार शब्द को देती है। संस्कृति मनुष्य के वर्तमान, भूत
तथा भविष्य का सर्वाङ्गपूर्ण प्रकार है। यह देश की वैज्ञानिक, कलात्मक तथा आध्यात्मिक उपलब्धियों का प्रतीक होती है तथा देश के मानसिक
विकास को सूचित करती है।
विचार और कर्म के
क्षेत्रों में राष्ट्र का जो सृजन है वही उसकी संस्कृति है। हमारी जीवनव्यवस्था
हमारी संस्कृति है। वह जीवन की प्राणवायु है, जो उसके चैतन्य-भाव को
प्रमाणित करती है।
संस्कृति हवा में
नहीं रहती, उसका मूर्तिमान् रूप होता है। जीवन के नानाविध रूपों के
समुदायों में संस्कृति निहित है। सृष्टि के आरम्भ से संस्कृति का विकास तथा
परिवर्तन होता चला आ रहा है।
जीवन का जितना भी
ऐश्वर्य है उसकी सृष्टि मनुष्य के मन, प्राण और शरीर के
दीर्घकालीन प्रयत्नों के फलस्वरूप हुई है। मनुष्य जीवन रुकता नहीं, पीढ़ी-दर-पीढ़ी निरन्तर आगे बढ़ता रहता है।
इसके साथ-साथ
संस्कृति के रूपों का उत्तराधिकार भी हमारे साथ चलता है अत एव हमारे सनातन धर्म, दर्शन,
कला तथा साहित्य आदि इसी संस्कृति के अंग हैं।
संस्कृति विश्व के
प्रति अनन्त मैत्री की भावना है। संस्कृति के द्वारा हम दूसरों के साथ सन्तुलित
स्थिति प्राप्त करते हैं। ऋग्वेद में कहा भी गया है -
【समानी व आाकूतिः समाना हृदयानि वः।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति॥】
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति॥】
संस्कृति के द्वारा
हम स्थूल भेदों के भीतर व्याप्त एकत्व के अन्तर्यामी सूत्र तक पहुँचने का प्रयत्न
करते हैं और उसे पहचान कर उसके प्रति अपने मन को विकसित करते हैं।
प्रत्येक राष्ट्र की
दीर्घकालीन ऐतिहासिक हलचल का लोकहितकारी तत्त्व उसकी संस्कृति है। संस्कृति
राष्ट्रीय जीवन की आवश्यकता है। जिन मनुष्यों के सामने संस्कृति का आदर्श ओझल हो
जाता है उनकी प्रेरणा के स्रोत भी मन्द पड़ जाते हैं। किन्तु सच्ची संस्कृति वह है
जो सूक्ष्म और स्थूल, मन और कर्म, अध्यात्म जीवन और
प्रत्यक्ष जीवन इन दोनों का कल्याण करती है।
संसार में देश भेद
से अनेक प्रकार के मनुष्य है। अतः उनकी संस्कृतियाँ भी अनेक हैं। किन्तु देश और
काल की सीमा से बँधे हम मनुष्यों का घनिष्ठ सम्बन्ध या परिचय किसी एक ही संस्कृति
से सम्भव है। वही हमारी आत्मा और मन में रमी हुई होती है और उनका संस्कार करती है।
परन्तु इसका यह अर्थ
कदापि नहीं कि इससे हमारे विचारों का संकुचन होता है। सत्य तो यह है कि जितना अधिक
हम संस्कृति के मर्म को अपनाते हैं उतने ही ऊँचे उठकर हमारा व्यक्तित्व संसार के
दूसरे मनुष्यों, धर्मों, विचारधाराओं और संस्कृतियों
से मिलने और उन्हें जानने के लिए समर्थ और अभिलाषी बनता है और अपने केन्द्र की
उन्नति ही बाह्य विकास की नींव है। अतः संस्कृति जीवन के लिए परम आवश्यक है।
भारत की संस्कृति
विश्व की समस्त संस्कृतियों के लिए मार्गदर्शिका है। इस संस्कृति में वह विशेषता
है, जो नित्य प्रतिदिन नवीन होती हुई समस्त संस्कृतियों को
परिपोषित करती हुई उन्हें मातृत्व का आह्लाद प्रदान कर सकती है।
भारत की सनातन
संस्कृति न केवल भारतीयों को एकजुट रखने में सामर्थ्यशालिनी है अपितु इस सार्वभौम
संस्कृति में संसार के सभी राष्ट्रों को एकसूत्र में बाँधने का परम-तत्त्व भी
समाया हुआ है।
【सत्यहिंसागुणैः श्रेष्ठा विश्वबन्धुत्वशिक्षिका।
विश्वशान्तिसुखाधात्री भारतीया हि संस्कृति॥】
विश्वशान्तिसुखाधात्री भारतीया हि संस्कृति॥】
इस सनातन संस्कृति
के चार मूल-सिद्धान्त हैं जो विश्व-शान्ति का मार्ग प्रशस्त करने में पूर्ण सक्षम
है-
1. 【वसुधैव कुटुम्बकम् 】- समस्त विश्व एक कुटुम्ब या परिवार
है।
2. 【एकं सद्विप्राः बहुधा वदन्ति】 - सत्य
एक है, विद्वान् इसे विभिन्न माध्यमों से कहते हैं।
3. 【सर्वे भवन्तु सुखिनः 】- सभी का कल्याण हो,
सभी सुखी होवें।
4. 【यद् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे 】- जो
पिण्ड में है, वही ब्रह्माण्ड में है।
भारतीय संस्कृति का
यह वैचारिक/सैद्धान्तिक आधार इतना सुदृढ़ तथा समन्वयकारी है कि यह समस्त विश्व को
एकसूत्र में पिरोने की क्षमता रखता है।
अध्यात्मिकता, त्याग,
सत्य और अहिंसा पर आधारित यह संस्कृति मनुष्य के आचरण को सुधार कर
समाज में एकता और बन्धुत्व के भावों का समावेश करती है तथा देश और समाज से लेने की
अपेक्षा देने की प्रेरणा देती है।
राष्ट्र-संवर्धन का
सबसे प्रबल कार्य संस्कृति की साधना है। उसके लिए बुद्धिपूर्वक यत्न करना आवश्यक
है। भारत की संस्कृति की धारा अति प्राचीन काल से बहती चली आयी है, हमें
उसका सम्मान करना चाहिए, किन्तु केवल उसके प्राण-तत्त्व को
अपनाकर ही हम आगे बढ़ सकते हैं।
अपने ही जीवन की
उन्नति, विकास और आनन्द के लिए हमें अपनी संस्कृति की सुध अवश्य
लेनी चाहिए। संस्कृति की प्रवृत्ति महाफलदायिनी होती है। भारतीय संस्कृति ईश्वर की
सर्वव्यापक सत्ता को स्वीकार कर व्यक्ति के व्यक्तित्व में त्याग भाव का आरोपण
करती है -
【ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुंजीथाः मा गृधः कस्यस्विद्धनम्॥】1
तेन त्यक्तेन भुंजीथाः मा गृधः कस्यस्विद्धनम्॥】1
इसके अनुसार
परमात्मा की स्थिति को निरन्तर अपने साथ समझते हुए, इस संसार में अनासक्त
भाव से सांसारिक, विषयों, द्रव्यों एवं
पदार्थों आदि का उपभोग करना चाहिए।
इन उपभोगों की
यथार्थता को जानने का माध्यम भी भारतीय संस्कृति ही है, जो
हमें बताती है कि विषयों का उपभोग करने से कामना कभी भी शान्त नहीं होती अपितु
अग्नि में घी के सदृश निरन्तर वृद्धि को प्राप्त होती रहती है-
【न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाऽभिवर्धते॥】2
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाऽभिवर्धते॥】2
कर्म-प्रधान इस
संस्कृति में अकर्मण्यता का कोई स्थान नहीं है। कर्मयोग निष्ठा से ही मानव समाज
शतजीवी हो सकता है:-
【कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतंसमाः।】3
किन्तु करणीय समस्त
कर्मों को मनुष्य निष्काम-भाव से करे तभी वह कर्मबन्धन से मुक्त हो सकता है और यही
कर्म योग है, जिसका ‘गीता’ हमें
ज्ञान कराती है-
【कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गत्यक्त्वा धनंजय।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥】4
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गत्यक्त्वा धनंजय।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥】4
त्यागपूर्वक, निष्काम
भाव से कर्म करते हुए हमें जीवन में ‘धर्म’ की प्रधानता को अंगीकार करना चाहिए। धर्म जीवन का सक्रिय तत्त्व है,
जीवन का जितना विस्तार है उतना ही व्यापक धर्म का क्षेत्र है। धर्म
लोकस्थिति का सनातन बीज है।
वह गंगा के ओजस्वी
प्रवाह की भांति जीवन के सुविस्तृत क्षेत्र को पवित्र तथा सिंचित करने वाला अमृत
है। मनुष्य-जीवन में जय-पराजय, सम्पत्ति-विपत्ति, सुख-दुःख सर्वदा एक समान नहीं रहते परन्तु धर्म ही एक वस्तु है, जो सर्वदा एक समान रहती है, अतः ‘महाभारत’ में महर्षि वेद व्यास का उद्घोष है-
【न जातु कामान्न भयान्न लोभाद्।
धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः॥
नित्यो धर्मः सुख-दुखे त्वनित्ये।
जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः॥】5
धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः॥
नित्यो धर्मः सुख-दुखे त्वनित्ये।
जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः॥】5
साथ ही धर्माश्रयी
मनुष्य को धर्माचरण में सर्वदा सतर्क रहना चाहिए क्योंकि धर्म जीवन तथा अमरत्व से
भी अधिक श्रेयस्कर है। धर्म का उल्लंघन मृत्यु से बढ़कर दुःखदायी होता है। अतः प्राणों
का उत्सर्ग करके भी धर्म की रक्षा तथा उसका अनुपालन करना चाहिए। इसी को युधिष्ठिर
स्पष्ट शब्दों में घोषित करते हैं-
【मम प्रतिज्ञां च निबोध सत्यां
वृणे धर्मममृताज्जीविताच्च॥】6
वृणे धर्मममृताज्जीविताच्च॥】6
भारतीय संस्कृति में
धर्म, अर्थ, काम, मोक्षरूपी
पुरुषार्थ-चतुष्टय का सिद्धान्त जीवन को सार्थक लक्ष्य प्राप्ति की ओर अग्रसर करता
है। निरन्तर गति मानव जीवन का वरदान है। व्यक्ति हो अथवा राष्ट्र जो भी एक पड़ाव पर
टिक जाता है, उसका जीवन ढलने लगता है।
भारतीय-दर्शन का 【‘चरैवेति-चरैवेति’】 सिद्धान्त
जीवन को निरन्तर गतिमान् रखता है। अतः इसकी धुन जब तक भारतीय संस्कृति के
रथ-चक्रों में गूँजती रहेगी तब तक व्यक्ति तथा राष्ट्र में निरन्तर उन्नति होती
रहेगी।
निरन्तर प्रगति करने
तथा प्रगति का मार्ग खुला रखने के लिए आवश्यक यह भी होगा कि नये और पुराने
सिद्धान्तों में सुलझा हुआ दृष्टिकोण रखकर उन्हें परस्पर संघर्ष से मुक्त रखा जाए।
पूर्व तथा नूतन का जहाँ मेल होता है वहीं उच्च संस्कृति की उपजाऊ भूमि है। ऋग्वेद
के पहले सूक्त में ही कहा गया है कि नये और पुराने ऋषि दोनों ही ज्ञान रूपी अग्नि
की उपासना करते हैं। यही अमर सत्य है-
【अग्नि पूर्वेभिर्ऋषिभिरीड्यो नूतनेरुत।】7
कालिदास ने भी कहा
है-
【पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम्।】8
अर्थात् जो पुराना
है उसे केवल इसी कारण अच्छा नहीं माना जा सकता और जो नया है उसका इसलिए तिरस्कार
करना भी उचित नहीं। महाकवि अश्वघोष ने तो यहाँ तक कहा है कि राजा और ऋषियों के उन
आदर्श चरित्रों को जिन्हें पिता अपने जीवनकाल में पूरा नहीं कर सके ये उनके
पुत्रों ने कर दिखाया-
【राज्ञामृषीणां चरितानि तानि कृतानि पुत्रैरकृतानि पूर्वैः।】9
भारतीय संस्कृति का
जो साधना पक्ष है, तप उसका प्राण है -
【तपोमयं जीवनम्।】
तप का तात्पर्य है
तत्त्व का साक्षात् दर्शन करने का सत्य प्रयत्न -
【 सत्यपरिपालनम्।
】
तप हमारी संस्कृति
का मेरुदण्ड है। तप की शक्ति के बिना भारतीय संस्कृति में जो कुछ ज्ञान है वह
स्वादहीन रह जाता है। तप से ही यहाँ का चिन्तन सशक्त और रसमय बना है।
अन्त में यह कह सकते
हैं कर्म और तप अध्यात्म और दर्शन, धर्म और चरित्र की
विशिष्ट उपासना के द्वारा अनन्त सर्वव्यपाक रस-तत्व तक पहुँचने की सतत चेष्टा
भारतीय संस्कृति में पायी जाती है।
जिसमें आध्यात्मिकी
भावना, वर्णाश्रम व्यवस्था, कर्मवाद,
पुनर्जन्मवाद, मोक्ष, अहिंसापालन,
मातृपितृ गुरुभक्ति और स्त्री समादर इत्यादि का समावेश रहता है।
वर्तमान समय में
आवश्यकता है अपनी संस्कृति में निहित आत्म तत्व को पहचान कर उसे आत्मस्थ करने की
जिससे भारतीय संस्कृति की जड़ें और भी विस्तार को प्राप्त करें।
संदर्भ-
1. ईशावास्योपनिषद्/1
2. मनुस्मृति
2/94
3. ईशोपनिषद-2
4. गीता
2/47-48
5. महाभारत-स्वर्गारोहरण
पर्व 5/63 उद्योग पर्व-40/11-12
6. महाभारत-वन
पर्व-35/22
7. ऋ0-अग्निसूक्त.1/2
8. मालविकाग्निमित्रम्
- 1/2
9. बुद्धचरितम्
- 1/46