एक बार किसी गुरु ने अपने शिष्य सम्राट का खजाना देखने की इच्छा जाहिर की। सम्राट् ने खुद अपने धनागार को खोला,
जिसमें कहीं हीरे, कहीं जवाहररात तो कहीं मणि-रत्न
आदि रखे थे। उन्हें देखकर गुरु ने पूछा, ‘‘इन
रत्नों से तुम्हारी कितनी कमाई होती है ?’’
सम्राट ने कहा, ‘‘इनसे कमाई नहीं होती, बल्कि इन पर व्यय होता है। इनकी रक्षा के लिए पहरेदार रखने पड़ते हैं।’’
गुरु ने पूछा, ‘‘इन्हें रखने के लिए खर्च होता है ? चलो, मैं तुम्हें इससे भी बढ़िया पत्थर दिखाता हूँ।’’
चलते-चलते दोनों काफी दूर निकल गए। थोड़ी देर बाद वे एक गरीब विधवा के घर पहुंचे। वह चक्की पीस रही थी।
गुरु ने कहा, ‘‘देखो राजन्, यह चक्की तुम्हारे पत्थरों से ज्यादा उपयोगी और अच्छी है। यह आटा पीसती है, जिससे लोगों की भूख मिटती है, और बुढ़िया का जीवनयापन भी होता है, इसलिए यही वास्तविक रत्न है।’’
सम्राट ने कहा, ‘‘इनसे कमाई नहीं होती, बल्कि इन पर व्यय होता है। इनकी रक्षा के लिए पहरेदार रखने पड़ते हैं।’’
गुरु ने पूछा, ‘‘इन्हें रखने के लिए खर्च होता है ? चलो, मैं तुम्हें इससे भी बढ़िया पत्थर दिखाता हूँ।’’
चलते-चलते दोनों काफी दूर निकल गए। थोड़ी देर बाद वे एक गरीब विधवा के घर पहुंचे। वह चक्की पीस रही थी।
गुरु ने कहा, ‘‘देखो राजन्, यह चक्की तुम्हारे पत्थरों से ज्यादा उपयोगी और अच्छी है। यह आटा पीसती है, जिससे लोगों की भूख मिटती है, और बुढ़िया का जीवनयापन भी होता है, इसलिए यही वास्तविक रत्न है।’’