उत्तर प्रदेश में विधायक मिश्राजी की पुत्री द्वारा अपने प्रेमी के साथ भाग कर विवाह करने और अपने पिता के विरुद्ध लज्जास्पद ढंग से वीडिओ जारी करने पर भारत में हमेशा की तरह बहस शुरू हो गई है जिसके आयाम अलग अलग हैं और एक दूसरे में इस कदर गुंफित हैं कि विचार अभिव्यक्ति में स्वयं संभ्रमित हैं कि वे वास्तव में कहना क्या चाहते हैं।
साक्षी प्रकरण में चार पक्षों से प्रतिक्रियायें आ रहीं हैं।
तथाकथित दलितवादी चिंतक इसे चिढ़ाने वाले ढंग से सवर्णों विशेषतः ‘ब्राह्मणों' के ऊपर अपनी 'सामाजिक विजय' के रूप में उद्घोषित कर रहे हैं जो स्पष्ट रूप से उनके हीनताबोध को रेखांकित करता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि दलितों की 'दलित मानसिकता' में कोई बदलाव नहीं आने वाला और वे सदैव स्वयं को नीचा ही मानते रहेंगे। और हाँ इस प्रकरण के द्वारा तात्कालिक रूप से अपने राजनैतिक आकाओं के संकेत पर दलितों-सवर्ण तनाव पैदा करना भी उनका एक लक्ष्य है जिसके लिये ‘विक्टिम कार्ड’ भी खेला जा रहा है।
दूसरा पक्ष मुस्लिमों का है जो ईसप की कथा में वर्णित ‘बिल्ली' की भूमिका निभाने को आतुर हैं जो उनकी घृणित हिंदू विरोधी मानसिकता के अनुरूप ही है।
तीसरा पक्ष है मीडिया और तथाकथित प्रगतिशील तबके का जो अपना मत उत्पीड़ित और उत्पीडक का तमगा उनकी जाति व धर्म के आधार पर तय करते हैं। चूंकि लड़का दलित और लड़की का पिता 'ब्राह्मण' है इसलिये इस वर्ग द्वारा मिश्राजी को खलनायक 'पिता' ही सिद्ध किया जायेगा। इन्हें 'न्याय और औचित्य' के सिद्धांत से कोई लेना देना नहीं कि लड़के की पृष्ठभूमि क्या है और उसका उद्देश्य क्या है। उनके लिये तो बस इतना काफी है कि लड़का दलित है और पिता सवर्ण और ऊपर से ब्राह्मण। अतः स्पष्ट है कि भारत के धार्मिक - सामाजिक तनाव को बढ़ाने वाला सबसे बड़ा कारक यही मीडिया व तथाकथित प्रगतिशील तबक़ा है। अंजना ओम कश्यप और उसकी घृणा फैलाती आवाज इस पाखंडी वर्ग का एक घिनौना प्रतीक है।
चौथा पक्ष है परंपरावादी सवर्णों का जो अपनी असली पीड़ा व दंभ को छिपाकर नितांत छिछले तर्कों से न केवल अपने पक्ष को कमज़ोर कर रहे हैं बल्कि हिंदुओं के सामाजिक संगठन को तोड़ने में अहर्निश व्यस्त जेएनयू गैंग व लिबरल्स को विक्टिम कार्ड खेलने व दक्षिणपंथियों को कट्टर व रूढ़िवादी सिद्ध करने का भरपूर मौक़ा भी दे रहे है। इनके आधारभूत तर्क कुछ यों हैं
1- लड़की को बाप की मर्जी के बिना शादी नहीं करनी चाहिये।
2-लड़की के हार्मोन जोर मार रहे हैं।
3-माँ बाप की परवरिश में कमी रह गई।
4-माता पिता के आगे प्रेम कोई मायने नहीं रखता।
5-लड़का उम्र में बीस साल बड़ा है।
2-लड़की के हार्मोन जोर मार रहे हैं।
3-माँ बाप की परवरिश में कमी रह गई।
4-माता पिता के आगे प्रेम कोई मायने नहीं रखता।
5-लड़का उम्र में बीस साल बड़ा है।
ऐसे छिछले तर्क प्रस्तुत करने वाले व्यक्ति वस्तुतः अपनी उस मानसिक पीड़ा को अभिव्यक्त कर रहे हैं जो श्रेष्ठतावादी अहं के घायल होने से उत्पन्न हुई है। इसके मूल में हमारी प्रतिगामी सोच है जिसके कारण ही प्रायः 'ऑनर किलिंग' की घटनाएं जन्म लेती हैं वरना तो हमारा इतिहास माता पिता की इच्छा के विरुद्ध, तथाकथित नीची जाति वाले लड़कों से विवाह व उम्र के अंतर के बावजूद सफल विवाहों के उदाहरण से भरा पड़ा है।
फिर परेशानी कहाँ से शुरू हुई?
ये शुरू हुआ मुस्लिमों के कारण। उन्होंने हिंदू कन्याओं के अपहरण को अपनी स्थाई नीति बना दिया और परिणामस्वरूप हिंदुओं ने स्त्री के अधिकारों में कटौती की और उसे घर की चहारदीवारी के अंदर बंद कर दिया और इस तरह मुस्लिम आक्रांताओं के कारण नारी स्वतंत्रता में कमी आती चली गई। लड़की का विवाह निजी रुचि के प्रश्न के स्थान पर सामाजिक मान-अपमान से जुड़ गया और अब यह सवर्णो की सामाजिक सोच की आनुवांशिकी में गुम्फित हो चुका है कि लड़की का विवाह तो मातापिता द्वारा चुने वर से ही होना चाहिये।
दरअसल समाज की यही वह सोच है जिसके कारण लड़की के पिता को सड़क पर गुजरते समय व्यंगात्मक निगाहों व व्यंगात्मक टिप्पणियों का सामना करना पड़ता है।ये व्यंग्यात्मक निगाहें, ये कानाफूसी, ये व्यंग्यात्मक टिप्पणियाँ जो कमज़ोर पृष्ठभूमि के पिता के ह्रदय में दैन्य और ताक़तवर पृष्ठभूमि के पिता के हृदय में प्रतिशोध की आग भड़काते हैं और इस आग में लड़के-लड़की और यहां तक कि उनके परिवार भी जल जाते है।
वस्तुतः इसके मूल में हैं भारत में हिंदुओं की सामाजिक और धार्मिक परिस्थितियां। प्रत्येक सवर्ण हिंदू के मन के सामाजिक व धार्मिक पूर्वाग्रहों की तहों में झांका जाए तो एक स्पष्ट द्वंद्व दृष्टिगोचर होता है।
एक ओर तो मुस्लिम खतरे के विरुद्ध विराट हिंदू एकता की मजबूरी तो दूसरी ओर सहस्त्राब्दियों से चला आ रहा जातीय श्रेष्ठता का दंभ। ‘मुस्लिमों' के रूप में यह एक ऐसा फैक्टर है जिसके कारण हिंदुओं विशेषतः सवर्णों के सामने एक दुविधा की स्थिति निर्मित कर दी है-
या तो वह चुने 'हिंदू एकता' को और त्यागे 'जातिगत श्रेष्ठतावाद' को या फिर झेले विधर्मी मुस्लिम के 'लव जेहाद' को ।
प्रथम विकल्प में उसका सिर्फ श्रेष्ठतावाद का अहं टूटेगा परंतु दूसरा विकल्प उसे सदैव पूर्णतः अस्वीकार्य होता है। जाहिर है अगर चुनना पड़ा तो वह अंतर्जातीय विवाह को स्वीकार करेगा ना कि कि विधर्मी मुस्लिम को। इस ख़तरे के कारण बेशक जातिवादी रूढ़िवाद काफी हद तक टूटा है परंतु यह कड़वी सचाई है कि हिंदू समाज सामाजिक संबंधों में ‘रोटी' तक का सफर भले तय कर चुका है पर लगता है 'बेटी' तक के सफर में अभी समय लगेगा।
जहां तक साक्षी प्रकरण का प्रश्न है मैं उसके पिता के साथ हूँ। इसलिये नहीं कि उसकी बेटी ने एक दलित से विवाह कर कोई गलत काम किया है बल्कि इसलिये क्योंकि कुत्सित अतीत व संदेहास्पद चरित्र के लड़के के इशारे पर भ्रमित व बौराई लड़की ने वीडियो जारी कर माता, पिता व भाई के सामाजिक सम्मान को तार तार कर दिया है और आगे होने वाले अंतर्जातीय विवाहों की संभावनाओं व औचित्य दोनों पर प्रश्नचिन्ह लगा दिये हैं।