वेदों में साकार ब्रह्म - Bablu Sharma

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वेदों में साकार ब्रह्म

वेदों में साकार ब्रह्म

ब्रह्म के साकार रूप में भी विद्यमान होने का वैदिक प्रमाण। स्वयं को वैदिक कहकर देवताओं, पुराणों के आलोचकों की आलोचना।
पूर्ण पठन करें…
जो धूर्त स्वयं को वैदिक कहकर पुराणों, देवताओं का अपमान करते हैं, मैं अपने ब्लॉग के जरिये खास उन्हीं के लिये है। मैं आर्य को कुछ नहीं कहूँगा क्योंकि आर्य वह हर व्यक्ति है जो भारतवर्ष में निवास करता है।
मैं उन्हें गलत नहीं कहता जो निराकार ब्रह्म को मानते हैं, अनाम ब्रह्म के उपासक हैं परंतु जो साकार को भी न मानें मेरी दृष्टि में सबसे बड़ा मूढ़ वही है।
वेद के संबंध में जरा भी ज्ञान नहीं, वे यहाँ तक कह देते हैं कि वेद में केवल निराकार के संबंध में लिखित है, दयानंद नें भी यही किया है।
मुझे वेद में ऐसे कई मंत्र मिले हैं जो सिद्ध करें कि ब्रह्म साकार रूप में भी विद्यमान है,
भगवान शिव जिसे वैदिक नहीं मानते…
शुक्ल यजुर्वेदोक्त श्लोक जिसमें देवता इंद्र का भी वर्णन है,
【“उग्रँ लोहि तेन मित्रगूँ सौव्रत्येन रुद्रं दौव्रत्येनेन्द्रं प्रकीडेनमरुतो बलेनसाद्ध्यान्प्रमुदा।
भवस्य कण्ठ्यगूँ रुद्रस्यान्त: पाश्व्य महादेवस्य यक्रच्छर्वस्यवनिष्ठ: पशुपते: पुरीतत्।।”】
उक्त श्लोक रुद्राष्टाध्यायी सप्तमोध्याय के तृतीय मंत्र के रूप में वर्णित है, अर्थ…
“अपने रक्त को स्वस्थ रखने हेतु उग्रदेव को, सदाचार रूप सुंदर व्रत से मित्रदेव को, दुर्धर्ष व्रत से रुद्र एवं क्रीडा विशेष द्वारा इंद्र को सामर्थ्यविशेष द्वारा मरुतो को, हृदय की प्रसन्नता द्वारा साध्यों को प्रसन्न करता हूँ। अपने कंठस्थित मांस में शिव को, पार्श्व भाग के मांस में रुद्र को एवं यकृत के मांस में महादेव को, स्थूलान्त्र द्वारा शर्व को और हृदयाच्छादित नाड़ी की झिल्लियों से पशुपति को प्रसन्न करता हूँ।”
【“यज्जागृतो दूरमुदैति दैवं तदुसप्तस्य तथैवैति। दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मन: शिवसङ्कल्पमस्तु।।”】
उक्त संकल्पमंत्र में भी शिव के संबंध में वर्णित है जाकर यजुर्वेद देखें।
【“ओउ्म् गणानांत्वा त्वा गणपतिगूँ हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपतिगूँ हवामहे निधीनां त्वा निधिपति गूँ हवामहे वसो मम। आहमजानि गर्भधमात्वमजासि गर्भधम्।।”】
उक्त श्लोक यजुर्वेद 23|19 है, यहाँ भगवान गणेश वर्णित हैं।
जाकर वेदों का पठन करें, ऐसे कई साक्ष्य मिलेंगे।
जब वेदों में ही साकार रूप की उपासना हैं तो फिर मूर्ति पूजा का विरोध क्यों?
और दयानंद ने वेदों में सिर्फ निराकार का उल्लेख है, ऐसा क्यों कहा?
इसमें तो साकार और निराकार दोनों का वर्णन है।
अब आईये इस लेख में जिसमे मैंने प्रथम मंडल के 16 से 25 सूक्तो का समावेश किया हैं। इन सूक्तो में मुझे विष्णु का भी स्तुति मिली। आप देख ले।
मैं ये नही कहती की ईश्वर के निराकार रूप नही है। आप ईश्वर को जैसा मानेंगे वो उसी तरह आपको दिखेंगे। वैसे भी, साधारण मानव बिना आकृति के ब्रह्म का ध्यान कैसे करेगा?
खैर, ये बात छोडिये आईये ऋग्वेद की ऋचाओ पर ध्यान देते है की किस प्रकार वेदों ने ब्रह्म के साकार रूप की स्तुति की है।
प्रथम मंडल के सूक्त संख्या 19 में एक मन्त्र को देखे।
【“ये शुभ्रा घोरवर्पसः सुक्षत्रासो रिशादसः। मरुद्भिरग्न आ गहि।।】
“जो शुभ्र तेजो से युक्त तीक्ष्ण,वेधक रूप वाले, श्रेष्ठबल-सम्पन्न और शत्रु का संहार करने वाले है। हे अग्निदेव! आप उन मरुतो के साथ यहाँ पधारें।”
इस मन्त्र में तो अग्नि देव को भी रूप वाले कहा हैं। अर्थात वेद साकार की उपासना करने को कह रहे हैं।
प्रथम मंडल के सूक्त 22 में लगातार इन 6 मंत्र हैरान करने वाले हैं। क्योंकि इसमें संस्कृत में भी स्पष्ट शब्दों में विष्णु की स्तुति हैं।
【“अतो देवा अवन्तु नो यतो विष्णुर्विचक्रमे। पृथिव्याः सप्त धामभिः।।”】
“जहाँ से (यज्ञ स्थल या पृथ्वी से) विष्णुदेव ने (पोषण परक) पराक्रम दिखाया, वहाँ (उस यज्ञीय क्रम से) पृथ्वी से सप्तधामो से देवतागण हमारी रक्षा करें।”
【“इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम्। समूळ्हमस्य पांगूँसुरे स्वाहा।।”】
“यह सब विष्णुदेव का पराक्रम है,तीन प्रकार के (त्रिविध-त्रियामी) उनके चरण है। इसका मर्म धूलि भरे प्रदेश मे निहित है।”
【“त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः।
अतो धर्माणि धारयन्।।】
“विश्वरक्षक, अविनाशी, विष्णुदेव तीनो लोको मे यज्ञादि कर्मो को पोषित करते हुये तीन चरणोसे जग मे व्याप्त है अर्थात तीन शक्ति धाराओ (सृजन, पोषण और परिवर्तन) द्वाराविश्व का संचालन करते है।”
【“विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे। इन्द्रस्य युज्यः सखा।।”】
“हे याजको! सर्वव्यापक भगवान विष्णु के सृष्टि संचालन संबंधी कार्यो(सृजन, पोषण और परिवर्तन) ध्यान से देखो। इसमे अनेकोनेक व्रतो (नियमो,अनुशासनो) का दर्शनकिया जा सकता है। इन्द्र(आत्मा) के योग्य मित्र उस परम सत्ता के अनुकूल बनकर रहे।(ईश्वरीय अनुशासनो का पालन करें)।”
【“तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः।
दिवीव चक्षुराततम्।।”】
“जिस प्रकार सामान्य नेत्रो से आकाश मे स्थित सूर्यदेव को सहजता से देखा जाता है, उसी प्रकार विद्वज्जन अपने ज्ञान चक्षुओ से विष्णुदेव(देवत्व के परमपद) के श्रेष्ठ स्थान को देखते हैं।”
【“तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिन्धते। विष्णोर्यत्परमं पदम्।।】
“जागरूक विद्वान स्तोतागण विष्णूदेव के उस परमपद को प्रकाशित करते हैं,अर्थात जन सामान्य के लिये प्रकट करते है।”
विष्णु जी का सदा विरोध करने वाले वैदिक लोगो को पढना चाहिए कि वेदों में भी उनका वर्णन है।
प्रथम मंडल के सूक्त 24 के इस मन्त्र को देखे।
【“शुनःशेपो ह्यह्वद्गृभीतस्त्रिष्वादित्यं द्रुपदेषु बद्धः। अवैनं राजा वरुणः ससृज्याद्विद्वाँ अदब्धो वि मुमोक्तु पाशान्।।”】
“तीन स्तम्भो मे बधेँ हुये शुनःशेप ने अदिति पुत्र वरुणदेव का आवाहन करके उनसे निवेदन किया कि वे ज्ञानी और अटल वरुणदेव हमारे पाशो को काटकर हमे मुक्त करें।”
यहाँ पर तो साफ शब्दों में वरुण देव को अदिति पुत्र कहा गया हैं। अर्थात वरुण देव साकार है। यानि यहाँ पर भी साकार की स्तुति हैं।
प्रथम मंडल के 25 वें सूक्त में तो साफ साफ वरुण देव के हृष्ट पुष्ट शरीर का वर्णन हैं और वो भी कवच धारण करने वाले।
【“बिभ्रद्द्रापिं हिरण्ययं वरुणो वस्त निर्णिजम्।
परि स्पशो नि षेदिरे।।】
“सुवर्णमय कवच धारण करके वरुणदेव अपने हष्ट-पुष्ट शरीर को सुसज्जित करते है। शुभ्र प्रकाश किरणे उनके चारो ओर विस्तीर्ण होती है।”
तो यहाँ पर भी साफ सुथरे शब्दों में वरुण के साकार रूप की स्तुति हैं। तो फिर आर्य लोग मूर्ति पूजा का क्यों विरोध करते हैं ?
25 वें सूक्त में तो वेदों ने यहाँ तक कह रहे है की वरुण देव दर्शनीय है हमने उनको देखा है।
【“दर्शं नु विश्वदर्शतं दर्शं रथमधि क्षमि।
एता जुषत मेगिरः।।”】
“दर्शनिय वरुण को उनके रथ के साथ हमने भूमि पर देखा है। उन्होने हमारी स्तुतियाँ स्वीकारी हैं।”
जो साकार होता है वही दर्शनीय होता हैं। ये सब तो आर्य और वैदिक लोग जानते ही होंगे। तो यहाँ पर भी साकार देव की ही स्तुति! तो मूर्ति पूजा का विरोध क्यों?
ऋग्वेद के तो प्रथम मण्डल में ही अग्निदेव आदि की स्तुति है।
【“अग्निनां रयिमश्र्नवत् पोषमेव दिवेदिवे।
यशसं वीरवत्तमम्।।”】
【“ये अग्निदेव मनुष्यों को विवर्धमान धन धन्य यश से संपूर्ण करने वाले हैं।”】
【“वायवा याहि दर्शतेमे सोमा अरंकृता:।
तेषां पाहि श्रुधीहवम्।।”】
“हे वायुदेव! हमारी प्रार्थना सुनकर यज्ञस्थल में आवें। आपके निमित्त प्रस्तुत सोमरस का पान करें।”
(अगर ईश्वर निराकार है तो सोमरस का पान कैसे करे?)
【“अश्विना यज्वरीरिषो द्रवत्पाणी शुभस्पती।
पुरुभुजा चनस्यतम्।।”】
“हे महाबाहो अश्विनीकुमारों! हमारे द्वारा समर्पित हविष्यान्न से आप भलीभाँति संतुष्ट हों।”
【“उप न: सवनागहि सोमस्यसोमपा: पिब।
गोदा इंद्रेवतो मद:।।”】
“हे सोमरस पान करने वाले इंद्रदेव! आप सोमरस पान कर यजकों को यश तथा गौएँ प्रदान करें।”
अब समर्थक कहेंगे कि “इंद्र अर्थात् प्रकाशक (ईश्वर)। इसमें प्रश्न उठता है कि क्या ईश्वर सोमरस पान करते हैं? हाँ तो कैसे? बिना मुख के? मुख है तो निराकार कैसे?
फिर समर्थक कहेंगे कि इंद्र किसी व्यक्ति हेतु कहा गया होगा। फिर प्रश्न उठता है कि, इंद्र नामक केवल स्वर्ग का राजा वर्णित है, फिर एक यज्ञ (इन सूक्तों का उपयोग वेदों में यज्ञ के समय देवताओं के आवाहन हेतु हुुआ है) में किसी इस प्रकार प्रार्थना करके केवल देवों का आवाहन किया जाता है न कि व्यक्ति का। क्यो?
ऐसे ही कई सूक्त हैं।
ऋग्वेद में देवी भगवती स्वयं ब्रह्मद्वेषियो के वध के लिए हाथ में रूद्र का धनुष ग्रहण करती हैं।
【“अहं रुद्राय धनुरा तनोमि।
ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवा उ।।”】
(10|7)
【“ब्राह्मणोस्यमुखमासीद् बाहूँ राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्याँ गूँ शूद्रो अजायत।।”】 (पुरुषसुक्त)
“उनके मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, उरू से वैश्य तथा पाद से शूद्रों की उत्पत्ति हुई है। तो जिनके अंग हों उनका देह कैसे नहीं??”
【“मैं ही ब्रह्मद्वेषियो का वध करने के लिए रूद्र का धनुष तानती हूँ।”】
इसका तात्पर्य यह है कि देवी का स्वरूप भी है हाथ भी है तभी हाथ में शिव का धनुष धारण करेगी।
इस पोस्ट को देखकर स्वयं को वैदिक बताने वालों की बुद्धि की दुकान बंद हो जाएगी। इनकी बुद्धि इसी प्रकार है जैसे मरीज को डाक्टर से दवाई लिखवाकर परचा दे दीजिये। मरीज पर्चा को ही दवाई समझ लिया और उसी पर्चे को खा जाय।
ये वेद के मंत्रो का अर्थ नहीं जानते है। वेद की किताब को ही विद्या समझ कर खा गए हैं, डकार ले रहे हैं।
जहाँ तक राम और कृष्ण का सवाल है, यह तो पुराणों में वर्णित ही है कि न ही उनका जन्म गर्भ से ही हुआ है वरन् वे चतुर्भुज ही आए तत्पश्चात् ही बालक रूप धारण किया। जिन राम का नाम लेकर रूद्र ने हलाहल पान किया उन्हें केवल योगी कहना मूढ़ता है।
अब ये बोलेंगे कि हम पुराण को नहीं मानते… ये लो..
【“ऋच: सामानि च्छंदांसि पुराणं यजुषा सह। उच्छिष्टाञ्जज्ञिरे दिवि देवा दिविश्रित:।।”】
(अथ. 11|9)
इस श्लोक में वैदिक मुनियों नें कहा कि पुराणों का आविर्भाव ऋक्, साम, यजुस् औद छन्द के साथ ही हुआ था।
【“इतिहास पुराणाभ्यां वेदार्थ मुपर्बंहयेत्”】 (बृहदारण्यकोपनिषद्)
अर्थात् वेद का अर्थविस्तार पुराणों द्वारा ही करना चाहिये।
अंत में एक बार फिर से आप सब से ये कहना चाहूँगी की अगर आप निराकार की उपासना करते हैं तो बहुत अच्छा है। मैं उसका तनिक भी विरोध नही करती।क्योंकि वेद में तो निराकार ईश्वर की भी उपासना हैं।
लेकिन साकार ईश्वर की भी उपासना हैं। तो आप भले भी निराकार को माने लेकिन साकार अर्थात मूर्ति पूजा का विरोध ना करें, क्योकि वैदिक ऋषि तो साफ साफ साकार रूप की स्तुति कर रहे हैं।
गीदड़ शेर की छाल पहन ले तो शेर न हो जाएगा अत स्वयं को वैदिक कहने वालों से कहना चाहुँगा कि अभी भी समय है उचित पथ पर आ जाओ। अन्यथा ईश्वर देख रहा है…

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