सरस्वती नदी - Bablu Sharma

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सरस्वती नदी

सरस्वती नदी
वैदिक सरस्वती नदी (हरे रंग मे)
सरस्वती नदी पौराणिक हिन्दू ग्रन्थों तथा ऋग्वेद में वर्णित मुख्य नदियों में से एक है। ऋग्वेद के नदी सूक्त के एक मंत्र (10.75) में सरस्वती नदी को 'यमुना के पूर्व' और 'सतलुज के पश्चिम' में बहती हुई बताया गया है।
उत्तर वैदिक ग्रंथों, जैसे ताण्डय और जैमिनीय ब्राह्मण में सरस्वती नदी को मरुस्थल में सूखा हुआ बताया गया है, महाभारत में भी सरस्वती नदी के मरुस्थल में 'विनाशन' नामक जगह पर विलुप्त होने का वर्णन आता है।
महाभारत में सरस्वती नदी के प्लक्षवती नदी, वेदस्मृति, वेदवती आदि कई नाम हैं।महाभारत, वायुपुराण आदि में सरस्वती के विभिन्न पुत्रों के नाम और उनसे जुड़े मिथक प्राप्त होते हैं।
महाभारत के शल्य-पर्व, शांति-पर्व, या वायुपुराण में सरस्वती नदी और दधीचि ऋषि के पुत्र सम्बन्धी मिथक थोड़े-थोड़े अंतरों से मिलते हैं उन्हें संस्कृत महाकवि बाणभट्ट ने अपने ग्रन्थ 'हर्षचरित' में विस्तार दे दिया है।
वह लिखते हें-" एक बार बारह वर्ष तक वर्षा न होने के कारण ऋषिगण सरस्वती का क्षेत्र त्याग कर इधर-उधर हो गए, परन्तु माता के आदेश पर सरस्वती-पुत्र, सारस्वतेय वहां से कहीं नहीं गया फिर सुकाल होने पर जब तक वे ऋषि वापस लौटे तो वे सब वेद आदि भूल चुके थे।
उनके आग्रह का मान रखते हुए सारस्वतेय ने उन्हें शिष्य रूप में स्वीकार किया और पुनः श्रुतियों का पाठ करवाया। अश्वघोष ने अपने 'बुद्धचरित 'काव्य में भी इसी कथा का वर्णन किया है।
दसवीं सदी के जाने माने विद्वान राजशेखर ने 'काव्यमीमांसा' के तीसरे अध्याय में काव्य संबंधी एक मिथक दिया है कि जब पुत्र प्राप्ति की इच्छा से सरस्वती ने हिमालय पर तपस्या की तो ब्रह्मा ने प्रसन्न हो कर उसके लिए एक पुत्र की रचना की जिसका नाम था- काव्यपुरुष।
काव्यपुरुष ने जन्म लेते ही माता सरस्वती की वंदना छंद वाणी में यों की- हे माता! मैं तेरा पुत्र काव्यपुरुष तेरी चरण वंदना करता हूँ जिसके द्वारा समूचा वाङ्मय अर्थरूप में परिवर्तित हो जाता है..."
ऋग्वेद तथा अन्य पौराणिक वैदिक ग्रंथों में दिये सरस्वती नदी के सन्दर्भों के आधार पर कई भू-विज्ञानी मानते हैं कि हरियाणा से राजस्थान होकर बहने वाली मौजूदा सूखी हुई घग्घर-हकरा नदी प्राचीन वैदिक सरस्वती नदी की एक मुख्य सहायक नदी थी,
जो 5000-3000 ईसा पूर्व पूरे प्रवाह से बहती थी। उस समय सतलुज तथा यमुना की कुछ धाराएं सरस्वती नदी में आ कर मिलती थीं। इसके अतिरिक्त दो अन्य लुप्त हुई नदियाँ दृष्टावदी और हिरण्यवती भी सरस्वती की सहायक नदियाँ थीं,
लगभग 1900 ईसा पूर्व तक भूगर्भी बदलाव की वजह से यमुना, सतलुज ने अपना रास्ता बदल दिया तथा दृष्टावदी नदी के 2600 ईसा पूर्व सूख जाने के कारण सरस्वती नदी भी लुप्त हो गयी।
ऋग्वेद में सरस्वती नदी को नदीतमा की उपाधि दी गयी है। वैदिक सभ्यता में सरस्वती ही सबसे बड़ी और मुख्य नदी थी। इसरो द्वारा किये गये शोध से पता चला है कि आज भी यह नदी हरियाणा, पंजाब और राजस्थान से होती हुई भूमिगत रूप में प्रवाहमान है।
परिचय
सरस्वती एक विशाल नदी थी। पहाड़ों को तोड़ती हुई निकलती थी और मैदानों से होती हुई अरब सागर में जाकर विलीन हो जाती थी। इसका वर्णन ऋग्वेद में बार-बार आता है। कई मंडलों में इसका वर्णन है। ऋग्वेद वैदिक काल में इसमें हमेशा जल रहता था।
सरस्वती आज की गंगा की तरह उस समय की विशालतम नदियों में से एक थी। उत्तर वैदिक काल और महाभारत काल में यह नदी बहुत कुछ सूख चुकी थी। तब सरस्वती नदी में पानी बहुत कम था।
लेकिन बरसात के मौसम में इसमें पानी आ जाता था। भूगर्भी बदलाव की वजह से सरस्वती नदी का पानी गंगा में चला गया, कई विद्वान मानते हैं कि इसी वजह से गंगा के पानी की महिमा हुई, भूचाल आने के कारण जब जमीन ऊपर उठी तो सरस्वती का पानी यमुना में गिर गया।
इसलिए यमुना में सरस्वती का जल भी प्रवाहित होने लगा। सिर्फ इसीलिए प्रयाग में तीन नदियों का संगम माना गया, जबकि यथार्थ में वहां तीन नदियों का संगम नहीं है। वहाँ केवल दो नदियां हैं। सरस्वती कभी भी इलाहाबाद तक नहीं पहुंची।
ऋग्वेद में सन्दर्भ
ऋग्वेद की चौथे पुस्तक(मंडल?) को छोड़कर सरस्वती नदी का सभी (मंडलों) पुस्तकों (?) में कई बार उल्लेख किया गया है। केवल यही ऐसी नदी है जिसके लिए ऋग्वेद की ऋचा 6.61,7.95 और 7.96 में पूरी तरह से समर्पित स्तवन दिये गये हैं।
प्रशस्ति और स्तुति:
वैदिक काल में सरस्वती की बड़ी महिमा थी और इसे 'परम पवित्र' नदी माना जाता था, क्योंकि इसके तट के पास रह कर तथा इसी नदी के पानी का सेवन करते हुए ऋषियों ने वेद रचे और वैदिक ज्ञान का विस्तार किया।
इसी कारण सरस्वती को विद्या और ज्ञान की देवी के रुप में भी पूजा जाने लगा।
ऋग्वेद के 'नदी सूक्त' में सरस्वती का इस प्रकार उल्लेख है कि
'इमं मे गंगे यमुने सरस्वती शुतुद्रि स्तोमं सचता परूष्ण्या असिक्न्या मरूद्वधे वितस्तयार्जीकीये श्रृणुह्या सुषोमया'
सरस्वती, ऋग्वेद में केवल 'नदी देवी' के रूप में वर्णित है (इसकी वंदना तीन सम्पूर्ण तथा अनेक प्रकीर्ण मन्त्रों में की गई है), किंतु ब्राह्मण ग्रथों में इसे वाणी की देवी या वाच् के रूप में देखा गया, क्योंकि तब तक यह लुप्त हो चुकी थी परन्तु इसकी महिमा लुप्त नहीं हुई और उत्तर वैदिक काल में सरस्वती को मुख्यत:, वाणी के अतिरिक्त बुद्धि या विद्या की अधिष्ठात्री देवी भी माना गया।
ब्रह्मा की पत्नी के रूप में इसकी वंदना के गीत गाये गए हैं ऋग्वेद में सरस्वती को नदीतमा की उपाधि दी गयी है। उसकी एक शाखा 2.41.16 में इसे "सर्वश्रेष्ठ माँ,सर्वश्रेष्ठ नदी,सर्वश्रेष्ठ देवी" कह कर सम्बोधित किया गया है। यही प्रशंसा
ऋग्वेद के अन्य छंदों 6.61,8.81,7.96 और 10.17 में भी की गयी है।
ऋग्वेद के मंत्र 7.9.52 तथा अन्य जैसे 8.21.18 में सरस्वती नदी को "दूध और घी" से परिपूर्ण बताया गया है। ऋग्वेद के श्लोक 3.33.1 में इसे 'गाय की तरह पालन करने वाली' बताया गया है ऋग्वेद के श्लोक 7.36.6 में सरस्वती को सप्तसिंधु नदियों की जननी बताया गया है।
अन्य वैदिक ग्रंथों में सन्दर्भ
ऋग्वेद के बाद के वैदिक साहित्य में सरस्वती नदी के विलुप्त होने का उल्लेख आता है, इसके अतिरिक्त सरस्वती नदी के उद्गम स्थल की 'प्लक्ष प्रस्रवन' के रुप में पहचान की गयी है, जो यमुनोत्री के पास ही अवस्थित है।
यजुर्वेद
यजुर्वेद की वाजस्नेयी संहिता 34.11 में कहा गया है कि पांच नदियाँ अपने पूरे प्रवाह के साथ सरस्वती नदी में प्रविष्ट होती हैं, ये पांच नदियाँ पंजाब की सतलुज, रावी, व्यास, चेनाब और दृष्टावती हो सकती हैं। वी. एस वाकणकर के अनुसार पांचों नदियों के संगम के सूखे हुए अवशेष राजस्थान के बाड़मेर या जैसलमेर के निकट पंचभद्र तीर्थ पर देखे जा सकते है।
रामायण
वाल्मीकि रामायण में भरत के कैकय देश से अयोध्या आने के प्रसंग में सरस्वती और गंगा को पार करने का वर्णन है-
'सरस्वतीं च गंगा च युग्मेन प्रतिपद्य च, उत्तरान् वीरमत्स्यानां भारूण्डं प्राविशद्वनम्' सरस्वती नदी के तटवर्ती सभी तीर्थों का वर्णन महाभारत में शल्यपर्व के 35वें से 54वें अध्याय तक सविस्तार दिया गया है।
इन स्थानों की यात्रा बलराम ने की थी। जिस स्थान पर मरूभूमि में सरस्वती लुप्त हो गई थी उसे 'विनशन' कहते थे।
महाभारत
महाभारत में तो सरस्वती नदी का उल्लेख कई बार किया गया है। सबसे पहले तो यह बताया गया है कि कई राजाओं ने इसके तट के समीप कई यज्ञ किये थे। वर्तमान सूखी हुई सरस्वती नदी के समान्तर खुदाई में 5500-4000 वर्ष पुराने शहर मिले हैं जिन में पीलीबंगा, कालीबंगा और लोथल भी हैं। यहाँ कई यज्ञ कुण्डों के अवशेष भी मिले हैं, जो महाभारत में वर्णित तथ्य को प्रमाणित करते हैं।
महाभारत में यह भी वर्णन आता है कि निषादों और मलेच्छों से द्वेष होने के कारण सरस्वती नदी ने इनके प्रदेशों मे जाना बंद कर दिया जो इसके सूखने की प्रथम अवस्था को दर्शाती है।
साथ ही यह भी वर्णन मिलता है कि सरस्वती नदी मरुस्थल में विनाशन नामक स्थान पर लुप्त हो कर किसी स्थान पर फिर प्रकट होती है।
महाभारत में वर्णन आता है कि ऋषि वशिष्ठ सतलुज में डूब कर आत्महत्या का प्रयास करते हैं जिससे नदी 100 धाराओं में टूट जाती है।
यह तथ्य सतलुज नदी के अपने पुराने मार्ग को बदलने की घटना को प्रमाणित करता है, क्योंकि प्राचीन वैदिक काल में सतलुज नदी सरस्वती में ही जा कर अपना प्रवाह छोड़ती थी।
बलराम जी द्वारा इसके तट के समान्तर प्लक्ष पेड़ (प्लक्षप्रस्त्रवण,यमुनोत्री के पास) से प्रभास क्षेत्र (वर्तमान कच्छ का रण) तक की गयी तीर्थयात्रा का वर्णन भी महाभारत में आता है।
महाभारत के अनुसार कुरुक्षेत्र तीर्थ सरस्वती नदी के दक्षिण और दृष्टावती नदी के उत्तर में स्थित है।
पुराण में संदर्भ
सिद्धपुर (गुजरात) सरस्वती नदी के तट पर बसा हुआ है। पास ही बिंदुसर नामक सरोवर है, जो महाभारत का 'विनशन' हो सकता है।
यह सरस्वती मुख्य सरस्वती ही की धारा जान पड़ती है। यह कच्छ में गिरती है, किंतु मार्ग में कई स्थानों पर लुप्त हो जाती है। 'सरस्वती' का अर्थ है- सरोवरों वाली नदी, जो इसके छोड़े हुए सरोवरों से सिद्ध होता है।
श्रीमद्भागवत "श्रीमद् भागवत (5,19,18)" में यमुना तथा दृषद्वती के साथ सरस्वती का उल्लेख है।
"मंदाकिनीयमुनासरस्वतीदृषद्वदी गोमतीसरयु" "मेघदूत पूर्वमेघ" में कालिदास ने सरस्वती का ब्रह्मावर्त के अंतर्गत वर्णन किया है।
"कृत्वा तासामभिगममपां सौम्य सारस्वतीनामन्त:शुद्धस्त्वमपि भविता वर्णमात्रेण कृष्ण:" सरस्वती का नाम कालांतर में इतना प्रसिद्ध हुआ कि भारत की अनेक नदियों को इसी के नाम पर 'सरस्वती' कहा जाने लगा।
पारसियों के धर्मग्रंथ अवेस्ता में भी सरस्वती का नाम हरहवती मिलता है।
उद्गम स्थल तथा विलुप्त होने के कारण
महाभारत में मिले वर्णन के अनुसार सरस्वती नदी हरियाणा में यमुनानगर से थोड़ा ऊपर और शिवालिक पहाड़ियों से थोड़ा सा नीचे आदि बद्री (बदरी) नामक स्थान से निकलती थी।
आज भी लोग इस स्थान को तीर्थस्थल के रूप में मानते हैं और वहां जाते हैं। किन्तु आज आदि बद्री नामक स्थान से बहने वाली नदी बहुत दूर तक नहीं जाती एक पतली धारा की तरह जगह-जगह दिखाई देने वाली इस नदी को ही लोग सरस्वती कह देते हैं।
वैदिक और महाभारत कालीन वर्णन के अनुसार इसी नदी के किनारे ब्रह्मावर्त था, कुरुक्षेत्र था, लेकिन आज वहां जलाशय हैं। जब नदी सूखती है तो जहां-जहां पानी गहरा होता है,
वहां-वहां तालाब या झीलें रह जाती हैं और ये तालाब और झीलें अर्द्धचन्द्राकार शक्ल में पायी जाती हैं। आज भी कुरुक्षेत्र में ब्रह्मसरोवर या पेहवा में इस प्रकार के अर्द्धचन्द्राकार सरोवर देखने को मिलते हैं, लेकिन ये भी सूख गए हैं।
लेकिन ये सरोवर प्रमाण हैं कि उस स्थान पर कभी कोई विशाल नदी बहती रही थी और उसके सूखने के बाद वहां विशाल झीलें बन गयीं। भारतीय पुरातत्व परिषद के अनुसार सरस्वती का उद्गम उत्तरांचल में रूपण नाम के हिमनद (ग्लेशियर) से होता था।
रूपण ग्लेशियर को अब सरस्वती ग्लेशियर भी कहा जाने लगा है। नैतवार में आकर यह हिमनद जल में परिवर्तित हो जाता था, फिर जलधार के रूप में आदि बद्री तक सरस्वती बहकर आती थी और आगे चली जाती थी।
वैज्ञानिक और भूगर्भीय खोजों से पता चला है कि किसी समय इस क्षेत्र में भीषण भूकम्प आए, जिसके कारण जमीन के नीचे के पहाड़ ऊपर उठ गए और सरस्वती नदी का जल पीछे की ओर चला गया।
वैदिक काल में एक और नदी दृषद्वती का वर्णन भी आता हैं। यह सरस्वती नदी की सहायक नदी थी। यह भी हरियाणा से हो कर बहती थी। कालांतर में जब भीषण भूकम्प आए और हरियाणा तथा राजस्थान की धरती के नीचे पहाड़ ऊपर उठे, तो नदियों के बहाव की दिशा बदल गई।
दृषद्वती नदी, जो सरस्वती नदी की सहायक नदी थी, उत्तर और पूर्व की ओर बहने लगी। इसी दृषद्वती को अब यमुना कहा जाता है, इसका इतिहास 4,000 वर्ष पूर्व माना जाता है। यमुना पहले चम्बल की सहायक नदी थी। बहुत बाद में यह इलाहाबाद में गंगा से जाकर मिली। यही वह काल था जब सरस्वती का जल भी यमुना में मिल गया।
ऋग्वेद काल में सरस्वती समुद्र में गिरती थी।
जैसा ऊपर भी कहा जा चुका है, प्रयाग में सरस्वती कभी नहीं पहुंची। भूचाल आने के कारण जब जमीन ऊपर उठी तो सरस्वती का पानी यमुना में गिर गया।
इसलिए यमुना में यमुना के साथ सरस्वती का जल भी प्रवाहित होने लगा। सिर्फ इसीलिए प्रयाग में तीन नदियों का संगम माना गया जबकि भूगर्भीय यथार्थ में वहां तीन नदियों का संगम नहीं है। वहां केवल दो नदियां हैं। सरस्वती कभी भी इलाहाबाद तक नहीं पहुंची।
सरस्वती नदी और हड़प्पा सभ्यता
सरस्वती नदी के तट पर बसी सभ्यता को जिसे हड़प्पा सभ्यता या सिन्धु-सरस्वती सभ्यता कहा जाता है, यदि इसे वैदिक ऋचाओं से हटा कर देखा जाए तो फिर सरस्वती नदी मात्र एक नदी रह जाएगी, सभ्यता खत्म हो जाएगी।
सभ्यता का इतिहास बताता है कि सरस्वती नदी तट पर बसी बस्तियों से मिले अवशेष तथा इन अवशेषों की कहानी केवल हड़प्पा सभ्यता से जुड़ती है।
हड़प्पा सभ्यता की 2600 बस्तियों में से वर्तमान पाकिस्तान में सिन्धु तट पर मात्र 265 बस्तियां हैं, जबकि शेष अधिकांश बस्तियां सरस्वती नदी के तट पर मिलती हैं।
अभी तक हड़प्पा सभ्यता को सिर्फ सिन्धु नदी की देन माना जाता रहा था, लेकिन अब नये शोधों से सिद्ध हो गया है कि सरस्वती का सिन्धु सभ्यता के निर्माण में बहुत बड़ा योगदान था।
नदी की गहराई
इस सरस्वती नदी के एक काफी गहरा है, एक सबसे बड़ी गहराई है, यह औसत गहराई 18 फीट (5 मीटर), और अधिकतम गहराई है 44 फीट (13 मीटर) है, यह केवल की गहराई 33 फीट (10 मीटर) है और गहराई है मतलब 39 फीट (12 मीटर). 77 फुट में (23.8 मीटर) के बाहर दूर बढ़ती।


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