चीन
के
महानतम
संत
कन्फ्यूशियस
एक
दिन
जंगल
में
बैठकर
चिंतन
कर
रहे
थे।
उन्हें
प्राय:
एकांत
स्थलों
पर
जाना
पसंद
था
क्योंकि
वहां
की
शांति
ध्यान
और
चिंतन-मनन
के
लिए
सर्वाधिक
उपयुक्त
होती
थी।
उस
दिन
चीन
के
सम्राट
का
काफिला
उधर
से
गुजरा।
जब
सम्राट
ने
कन्फ्यूशियस
को
ध्यानमग्न
देखा
तो
उनके
मन
में
यह
जिज्ञासा
हुई
कि
ये
कौन
है?
वे
कन्फ्यूशियस
के
पास
आए
और
कुछ
देर
तक
उन्हें
देखते
रहे।
फिर
बोले
- आप
कौन
हैं?
कन्फ्यूशियस
ने
कहा
- मैं
सम्राट
हूं।
सम्राट
को
यह
सुनकर
अचरज
हुआ।
वे
बोले
- सम्राट
तो
मैं
हूं।
देखो,
मेरे
पास
सेना
है, सेवक है, अपार धन-संपत्ति और हाथी-घोड़े हैं। तुम्हारे पास तो इनमें से कुछ नहीं दिखाई देता। फिर तुम सम्राट कैसे हुए? कन्फ्यूशियस मुस्कराते हुए बोले - सेना उसे चाहिए, जिसके शत्रु हों।
मेरा कोई शत्रु नहीं है। इसलिए मुझे सेना की जरूरत नहीं। जो आलसी या असमर्थ होते हैं, उन्हें सेवकों की जरूरत होती है। न मैं आलसी हूं और न असमर्थ, इसलिए मुझे सेवक की आवश्यकता नहीं। धन-संपत्ति दरिद्र को चाहिए और मैं दरिद्र भी नहीं हूं, क्योंकि मेरे पास संतोष रूपी धन है।
मेरा कोई शत्रु नहीं है। इसलिए मुझे सेना की जरूरत नहीं। जो आलसी या असमर्थ होते हैं, उन्हें सेवकों की जरूरत होती है। न मैं आलसी हूं और न असमर्थ, इसलिए मुझे सेवक की आवश्यकता नहीं। धन-संपत्ति दरिद्र को चाहिए और मैं दरिद्र भी नहीं हूं, क्योंकि मेरे पास संतोष रूपी धन है।
अब आप ही बताइए कि असली सम्राट आप हैं या मैं? सम्राट निरुत्तर हो आगे बढ़ गए। कथा का सार यह है कि अमीरी साधनों से नहीं, संतुष्टि से तय होती है। असीमित साधनों के होते हुए भी असंतोष होना सबसे बड़ी निर्धनता है और सीमित साधनों में परम संतुष्टि का भाव आत्मा की महान संपन्नता को दर्शाता है।
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