किसी जगह फूल और काँटे में बहस छिड़ गई। कांटे ने फूल से कहा,
‘भई, तुम्हें ईश्वर ने व्यर्थ ही बनाया है। तुम तो इतने कोमल हो कि शीत और ताप के एक मामूली से झोके को नहीं सह सकते। एक-दो दिन खिलकर
मुरझा जाते हो।
मुझे कई बार तुम्हारी क्षणभंगुरता पर तरस आता है। मुझे देखो,
मैं कितने दिनों से जी रहा हूं। तुम्हारे जाने कितने पूर्वज इस टहनी पर खिले और मुरझाए लेकिन मैं ज्यों का त्यों हूँ। जानते हो क्यों ?
क्योंकि जो कोई मेरे पास आता है, मैं उसे काट
खाता हूं। लोगों में हिम्मत नहीं कि मुझे छुएँ।’’
फूल ने सहज भाव से कहा, ‘‘बंधु, तुम्हारा कहना सही है। मगर मुझे तो मरने-जीने का खयाल ही नहीं आता। उत्सर्ग ही मेरे जीवन का ध्येय बन गया है। मैं चाहता हूँ कि मेरा जीवन भले एक पल का हो, पर अपनी सुगंध से सबके मन को मोहित कर सकूँ। देखने वाला प्रसन्न और गद्गद हो जाए।’’
यह सुनते ही काँटें का घमंड चकनाचूर हो गया। कहते हैं, उसी रोज से उसने फूलों की रक्षा को अपना कर्त्तव्य मान लिया।
फूल ने सहज भाव से कहा, ‘‘बंधु, तुम्हारा कहना सही है। मगर मुझे तो मरने-जीने का खयाल ही नहीं आता। उत्सर्ग ही मेरे जीवन का ध्येय बन गया है। मैं चाहता हूँ कि मेरा जीवन भले एक पल का हो, पर अपनी सुगंध से सबके मन को मोहित कर सकूँ। देखने वाला प्रसन्न और गद्गद हो जाए।’’
यह सुनते ही काँटें का घमंड चकनाचूर हो गया। कहते हैं, उसी रोज से उसने फूलों की रक्षा को अपना कर्त्तव्य मान लिया।